Tuesday, September 22, 2009

अपना खेत अपनी पाठशाला का पंद्रहवां सत्र

निडाना कि इस पाठशाला का पिछला सत्र "किसानों-वैज्ञानिकों का संवाद" के नाम पर था। सारा दिन 35 कृषि विकास अधिकारियों के साथ बीता। गजब का हुआ अनुभव और हुई अजब सी अनुभूति। पाठशाला के आयोजकों एवं संयोजकों के पास इसके वर्णन एवं व्याख्याँ के लिए शब्द नहीं हैं। इस कार्यकर्म से किसानों के उत्साह में संचार की बानगी आज पाठशाला के पन्द्रहवें सत्र में दिखाई दी। अब कपास की फसल में अन्य कीटों की अपेक्षा "Red Cotton bug" व् "Cotton Dusky Bug" ज्यादा दिखाई देने लगे हैं। इन्हीं दो पादपखोरों पर सभी का ध्यान है। रणबीर ने आशंका प्रकट की की काटन डस्की बग के सैकडों निम्फ ज्यादातर अर्धखिले टिंडों में पावै सै। हो-ना-हो यु बग अंडे भी अर्धखिले टिन्डाँ में देता पावैगा। या सुनते ही मिहर सिंह के सुरेन्द्र नै कपास के फोहे से बीज के पास तीन झकाझक सफ़ेद अंडे ढूंढ़ दिए। दीपक फोहे में से हलके पीले रंग के अंडे खोज लाया। रणबीर ने कच्चे पत्ते पर हलके गुलाबी रंग के अंडे ढूंढ़ मारे। तीनों किसानों द्वारा लाये गये ये अंडे हालाँकि तीन रंग के
थे पर तीनों की बुनावट व् आकार हुबहू एक जैसा था। इसका मोटा सा अंदाजा यही था की ये अंडे एक ही कीट के हैं। अर् हैं भी- गाधला बग़ के। ठीक इसी क्षण बिल्ली की तरह दा मे बैठे बसाऊ नै डा.सुरेन्द्र दलाल को लाठी की खोद अर् भीत बीच ले लिया, "डा.साहब, आपने तो न्यूँ बताया था अक यू गंधला बग़ अपने अंडे या तो गीली जमीन में देता है या फ़िर जमीन की तरेडों में।"

डा.दलाल नै भी एक बै तो धरती भिड़ी होगी। पर तुंरत संभल के न्यूँ बोल्या," मेरा इसमे किम्मे कसूर नहीं। मनै तो या बात थारै तै किताब में तै पढ़ कर बताई थी। किताब NCIPM,Pusa Campus,New Delhi आल्याँ की सै। चार धुरंधर विज्ञानिकां नै मिलकर लिख राखी सै। 1999 में 105 रुपये में खरीदी थी।" इतना कह झट डा.साहिब नै झोले में से किताब निकाल कर रत्तन के हाथ पर रख दी।
रत्तन भी पुरा खपड, बिना किताब खोले न्यूँ कहन लगा अक डा.साहब, आपनै अपराधबोध का शिकार होन की जरूरत नही। या तो प्रकृति सै। इसके खेल न्यारे-न्यारे। हो सके सै भले बक्तां में इस गंधले बग़ का जापा जमीन रूपी सामान्य हस्पताल में होंदा हो और इब इन खातिर भी अधखिले टिंडों के फोहों में डिलिवरी हट खुलगे हों।
इब तो बेधड़क हो कै इस गंधले बग़ के परभक्षी, परजीव्याभ, परजीवी या रोगाणुओं के बारे में बताओ।" मनबीर नै आज पहली बार डा.दलाल का आत्मविश्वास डगमगाया देखा। रत्तन कै हाथ में से हैंड-बुक लेली व् खोल कर पढ़न लगा। थोडी देर बाद न्यूँ बोल्या अक यु बग़ बहुत तीखी गंध छोड़ता है। इसीलिए इस बग़ को खाने वाले कीट भी बहुत कम होंगे। इस हैंड-बुक में तो इस बग़ का केवल एक ही परभक्षी बता रखा है। इसका नाम सै-Tricholeps tantilus. मेरे ख्याल तै तो यू भी एक बुगडा सै जो दुसरे कीटों का रक्त चूस कर गुजारा करता है। शायद हो भी एन्थु बुगडे की मौसी का छोरा। ना तो मनै इसकी पिछाण अर् ना मनै इसकी फोटों देख राखी।
रामजी लाल का चन्द्र जमाँ भरा बैठा था। इतनी कडे उट्टै थी। न्यूँ बोल्या अक किसने देखा सुरग भरथरी आपा मरे बिना। चालो अर् फेर माथा मारो इन अधखिले टिन्डाँ मै। और देखते-देखते किसानों ने इन अधखिले फलीय भागों में चार कीट पकड़ लिए। इनमे से दो मैगट अर् एक गर्ब सै। किसके सै ? या ना to डा.नै बेरया ar ना किसानां नै। समय अर् स्थान के हिसाब से सै परभक्षी। इनकी सही पहचान व् भक्षणता का पता लगाने का काम, किसानों की यह पाठशाला कीट-वैज्ञानिकों के जिम्में छोड़ती है। आजकल सारी यूनिवर्सिटियां में इंटरनेट सै। कोई न कोई भला कीट-वैज्ञानी जरुर म्हारी इस काम में मदद करेगा।
"सपने में ग्याभण होण की बाण छोड़ दो अर् इस डा.की जिम्मेवारी लावो। हमेटी, कृषि विश्वविधालय या इंटरनेट पर तै इन कीटों का भेद पाड़ कै लावै।" जयकिशन शर्मा नै सुझाव दिया। इसके साथ ही कप्तान द्वारा बाकुलियाँ बांटने के साथ पाठशाला के इस सत्र का समापन हुआ। इसी समय पंजाब केसरी के संवाददाता श्री अनिल पंघाल व् युवा शक्ति के पदाधिकारी श्री दलबीर चहल आ पहूँचे पाठशाला के इन किसानों से मौके पर संवाद करने। सवा घंटे के इस नये सत्र में अनिल पंघाल ने किसानों से ढेर सारी जानकारी इक्कठी की।

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